भगवान श्रीकृष्ण चरितम : प्राकट्य से महाप्रयाण तक
भगवान श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन के एक ऐसे अद्वितीय चरित्र हैं, जिनका जीवन केवल एक धार्मिक कथा नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है। वे न केवल भगवान विष्णु के आठवें अवतार माने जाते हैं, बल्कि मानवता के लिए प्रेम, करुणा, नीति, धर्म और कर्तव्य के सर्वोच्च आदर्श भी हैं। श्रीकृष्ण का जीवन महाकाव्य महाभारत, भागवत पुराण, विष्णु पुराण और अनेक ग्रंथों में विस्तृत रूप से वर्णित है।
कृष्ण का जीवन बहुआयामी है — बाल्यावस्था की माखन-चोरी से लेकर रासलीला की मधुरता तक, महाभारत के रणभूमि में गीता के दिव्य उपदेश से लेकर द्वारका के शासन तक।
कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व उनके प्राकट्य का उत्सव है, जो भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। यह दिन न केवल भक्तों के लिए उत्साह और आनंद का प्रतीक है, बल्कि यह हमें धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देता है।
भाग 1 – भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य – दिव्य अवतार की भूमिका और कारण
द्वापर युग का काल और अवतरण का कारण
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग के अंत में हुआ, जब पृथ्वी पर अधर्म, अन्याय और पाप का अत्यधिक प्रसार हो चुका था। महाभारत और भागवत पुराण के अनुसार, पृथ्वी (भूमि देवी) स्वयं गौ के रूप में ब्रह्मा जी के पास गईं और रोते हुए बोलीं—“हे ब्रह्मा! मेरे ऊपर असुरों, अत्याचारियों और अधर्मी राजाओं का बोझ बढ़ गया है, मैं इसे और सहन नहीं कर सकती।” ब्रह्मा जी ने देवताओं को लेकर क्षीरसागर में भगवान विष्णु के पास जाकर विनती की।
भगवान विष्णु ने कहा कि वे स्वयं द्वापर युग में पृथ्वी पर अवतरित होंगे, यदुवंश में जन्म लेंगे, और कंस जैसे अत्याचारियों का अंत करेंगे। उन्होंने देवताओं को भी आदेश दिया कि वे विभिन्न रूपों में पृथ्वी पर जन्म लें, ताकि धर्म की स्थापना में सहायक बन सकें।
मथुरा का राजा कंस और अत्याचार की सीमा
यह सुनकर कंस का चेहरा बदल गया। वह तत्काल देवकी को मारने के लिए तलवार निकालने लगा, परंतु वसुदेव जी ने बुद्धिमानी से कहा—“हे कंस! बहन की हत्या करना पाप है। मैं वचन देता हूँ कि उसकी जो भी संतान होगी, मैं स्वयं तुम्हें सौंप दूँगा।”
कंस ने यह शर्त मान ली, लेकिन सावधानी के लिए देवकी और वसुदेव को कारागार में बंद कर दिया।
पहली से सातवीं संतान तक की घटना
कारागार में देवकी की एक-एक करके सात संतानें हुईं, जिन्हें कंस ने निर्दयता से मार डाला। सातवीं संतान बलराम जी थे, जिन्हें योगमाया के प्रभाव से देवकी के गर्भ से रोहिणी जी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया गया। इस प्रकार बलराम का जन्म नंदग्राम में हुआ।
आठवीं संतान का आगमन – श्रीकृष्ण का जन्म
समय बीता, और देवकी गर्भवती हुईं। यह गर्भ स्वयं भगवान विष्णु का था, जिन्होंने यह अवतार पृथ्वी को पाप से मुक्त करने के लिए लिया था। भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष, अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र, मध्यरात्रि का समय—चारों ओर घना अंधकार, मथुरा में यमुना का जल तेज बहाव में, कारागार के द्वार पर पहरेदारों की नींद गहरी।
जैसे ही श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ, कारागार का वातावरण अद्भुत हो गया—
- देवकी और वसुदेव ने देखा कि बालक के चार हाथ हैं, शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए।
- उनके शरीर से दिव्य आभा निकल रही है।
- उन्होंने स्वयं कहा—“माँ, मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, परंतु वास्तव में मैं भगवान विष्णु हूँ। अब आप मुझे गोकुल में नंद बाबा के घर ले जाइए, जहाँ मेरी रक्षा होगी।”
भगवान ने माता-पिता को अपना दिव्य रूप दिखाकर बाल रूप धारण कर लिया।
गोकुल तक की अद्भुत यात्रा
योगमाया ने अपने प्रभाव से कारागार के दरवाजे खोल दिए। वसुदेव जी ने बालक को टोकरी में रखा और यमुना नदी की ओर बढ़े। बाहर मूसलधार बारिश हो रही थी, बिजली चमक रही थी, और यमुना नदी उफान पर थी।
जैसे ही वसुदेव जी यमुना में उतरे, पानी उनके कंधों तक आ गया। तभी यमुना ने भगवान के चरणों को छूने के लिए ऊँचाई तक लहर मारी और फिर शांत हो गई। शेषनाग ने आकर अपने फन से बालक को वर्षा से बचाया।
योगमाया का अद्भुत खेल
गोकुल में उसी समय यशोदा जी को भी संतान हुई थी—वह स्वयं योगमाया थीं। वसुदेव जी ने श्रीकृष्ण को वहाँ रखकर योगमाया को उठाया और मथुरा लौट आए। कारागार के दरवाजे पुनः बंद हो गए, पहरेदार अपनी नींद में डूबे रहे।
कंस को जब पता चला कि देवकी की संतान हुई है, वह तुरन्त आया और बालिका को मारने के लिए उठाया। परंतु बालिका उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गई और अपने दिव्य रूप में बोली—“हे कंस! जिसने तेरा विनाश करना है, वह तो कहीं और जन्म ले चुका है।”
उम्र: 0 वर्ष – जन्म लीला का महत्व
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म के संघर्ष का प्रतीक है। उनका आगमन यह दर्शाता है कि जब अन्याय अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है, तब ईश्वर स्वयं पृथ्वी पर अवतरित होकर धर्म की स्थापना करते हैं।
भागवत पुराण (10.3.41) में कहा गया है—
“अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥”
अर्थात् — “यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ, फिर भी अपनी योगमाया से जन्म लेकर धर्म की रक्षा के लिए आता हूँ।”
श्रीकृष्ण के बाल्यकाल की लीलाएँ (0–5 वर्ष)
गोकुल में नंद बाबा और यशोदा मैया के आँगन में पले-बढ़े श्रीकृष्ण का बचपन दिव्य और अद्भुत लीलाओं से भरा हुआ था। उनका शैशव काल केवल खेल-कूद में नहीं, बल्कि असुर वध और धर्म रक्षा के कार्यों से भी परिपूर्ण था। जन्म के क्षण से लेकर पाँच वर्ष की उम्र तक उन्होंने अनेक ऐसी घटनाएँ घटाईं, जो आज भी भक्तों के लिए भक्ति और आनंद का स्रोत हैं।
पूतना वध (उम्र – 6 दिन)
कंस ने जैसे ही सुना कि उसका विनाश करने वाला बालक जन्म ले चुका है, उसने अपने दूतों को चारों ओर भेजा। इनमें एक राक्षसी थी—पूतना, जो रूप बदलने में निपुण थी।
- पूतना एक सुंदर स्त्री का रूप धरकर गोकुल पहुँची।
- उसने यशोदा से कहा कि वह बालक को गोद में लेकर प्यार करना चाहती है।
- उसके स्तनों में विष लगा था, ताकि बालक को दूध पिलाकर मार सके।
- परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने दूध के साथ उसकी जीवन शक्ति भी खींच ली।
- पूतना ने अपने असली रूप में आकर प्राण त्याग दिए, और उसका शरीर कई योजन लंबा हो गया।
महत्व – यह घटना बताती है कि भगवान अपने जन्म के कुछ ही दिनों में भी भक्तों की रक्षा और दुष्टों का विनाश करने में सक्षम हैं।
शकटासुर वध (उम्र – 3 महीने)
गोकुल में नंदोत्सव का समय था। एक दिन यशोदा मैया ने बालक को एक ऊँचे लकड़ी के शकट (रथ) के नीचे सुला दिया।
- शकटासुर नामक दैत्य उस रथ में प्रवेश कर गया और उसे उलटकर बालक को दबाने की योजना बनाने लगा।
- परंतु तीन महीने के शिशु श्रीकृष्ण ने पैर से हल्की सी ठोकर मारी और रथ टूटकर बिखर गया।
- दैत्य का शरीर वहीं समाप्त हो गया।
महत्व – यहाँ भगवान ने यह दिखाया कि वे अपने भक्तों को किसी भी स्थिति में सुरक्षित रख सकते हैं, चाहे उनकी उम्र कितनी भी हो।
त्रिणावर्त वध (उम्र – 1 वर्ष)
कंस ने एक और राक्षस भेजा—त्रिणावर्त, जो बवंडर का रूप ले सकता था।
- वह गोकुल में आया और बालक श्रीकृष्ण को अपने बवंडर में उठाकर आकाश में ले गया।
- परंतु भगवान ने उसका गला पकड़ लिया और उसका दम घुटने लगा।
- त्रिणावर्त मृत होकर जमीन पर गिर पड़ा, और श्रीकृष्ण सुरक्षित रहे।
उखल बंधन – दामोदर लीला (उम्र – 3–4 वर्ष)
श्रीकृष्ण को माखन चोरी करना बहुत प्रिय था।
- एक दिन यशोदा मैया ने उन्हें माखन खाते हुए पकड़ लिया।
- उन्होंने क्रोधित होकर श्रीकृष्ण को लकड़ी के उखल से बाँध दिया।
- उखल खींचते-खींचते भगवान दो बड़े वृक्षों के बीच से निकल गए, जिससे वे वृक्ष (जो नलकूबर और मणिग्रीव नामक दो यक्ष थे) गिर पड़े और अपने शाप से मुक्त हुए।
महत्व – यह लीला दिखाती है कि भगवान अपने भक्तों के उद्धार के लिए कोई भी उपाय कर सकते हैं।
वत्सासुर वध (उम्र – 5 वर्ष)
श्रीकृष्ण और बलराम गायों को चराने के लिए वन में गए।
- वत्सासुर नामक दैत्य ने बछड़े का रूप धारण कर लिया और गोपबालकों के बीच आ गया।
- श्रीकृष्ण ने तुरंत पहचान लिया और उसकी टांग पकड़कर उसे वृक्ष से पटक दिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
बकासुर वध (उम्र – 5 वर्ष)
एक दिन गोपबालक यमुना किनारे खेल रहे थे, तभी एक विशाल बगुला (बकासुर) आया।
- उसने श्रीकृष्ण को निगलने का प्रयास किया।
- भगवान ने उसके गले में इतना ताप उत्पन्न किया कि उसने उन्हें बाहर उगल दिया।
- फिर भगवान ने उसकी चोंच को चीरकर उसका अंत कर दिया।
बाल्यकाल लीलाओं का महत्व
श्रीकृष्ण का बचपन केवल माखन चोरी, गोपियों को चिढ़ाने और बांसुरी बजाने तक सीमित नहीं था। उन्होंने इस उम्र में ही कई राक्षसों का वध कर गोकुलवासियों को भयमुक्त कर दिया।
भागवत पुराण (10.8.45) में कहा गया है—
“नन्दगोपगृहं गत्वा यशोदा तं ललामयत्।हर्षाश्रुपुलकोत्कण्ठा बालकं परमाद्भुतम्॥”
अर्थात् — “नंदगृह में जाकर यशोदा ने अद्भुत बालक को हर्ष के आँसुओं के साथ गले लगाया।”
गोकुल से वृंदावन स्थानांतरण और गोवर्धन लीला (6–10 वर्ष)
श्रीकृष्ण के बाल्यकाल में लगातार कंस के भेजे हुए राक्षस गोकुल में आकर उत्पात मचा रहे थे—वत्सासुर, बकासुर, त्रिणावर्त, पूतना आदि का वध तो हो चुका था, लेकिन खतरा समाप्त नहीं हुआ था। नंद बाबा और गोकुलवासी चिंतित रहने लगे कि कहीं यह दिव्य बालक किसी बड़े षड्यंत्र का शिकार न हो जाए।
इसी बीच, एक दिन गोकुल में एक विचित्र घटना घटी—यमुना नदी का जल विषैला हो गया, पशु-पक्षी मरने लगे, लोग भयभीत हो गए। पता चला कि कालिया नामक भयंकर सर्प ने यमुना में निवास कर लिया है और अपने विष से जल को जहरीला बना दिया है। यह घटना वृंदावन स्थानांतरण की भूमिका बनी।
कालिया नाग मर्दन (उम्र – 7 वर्ष)
- श्रीकृष्ण ने अपने मित्रों और गायों को यमुना किनारे खेलते देखा, तभी कालिया नाग पानी से बाहर निकलकर फुफकारने लगा।
- भगवान ने जल में छलांग लगाई और कालिया के फनों पर चढ़ गए।
- वे फनों पर नृत्य करने लगे, जिससे नाग की शक्ति क्षीण हो गई।
- कालिया की पत्नियाँ आकर श्रीकृष्ण से क्षमा याचना करने लगीं।
- भगवान ने आदेश दिया कि वह यमुना छोड़कर समुद्र में चला जाए, और इस प्रकार यमुना पुनः शुद्ध हो गई।
महत्व – यह घटना दर्शाती है कि भगवान केवल राक्षसों का ही नहीं, बल्कि प्रकृति के संतुलन का भी ध्यान रखते हैं।
अघासुर वध (उम्र – 8 वर्ष)
अघासुर, पूतना और बकासुर का भाई था।
- उसने विशाल अजगर का रूप धारण कर अपने मुँह को इतना बड़ा कर लिया कि पूरा वन मार्ग उसका मुख बन गया।
- गोपबालक खेलते-खेलते उसके मुँह में प्रवेश करने लगे।
- श्रीकृष्ण ने परिस्थिति भाँप ली और अंत में स्वयं उसके मुँह में जाकर भीतर से उसका प्राणोत्सार कर दिया।
- अघासुर का मृत शरीर पहाड़ की तरह धराशायी हो गया।
व्योमासुर वध (उम्र – 8 वर्ष)
व्योमासुर नामक दैत्य ने गोपबालकों को अगवा करना शुरू कर दिया और उन्हें गुफा में बंद कर दिया।
- श्रीकृष्ण ने उसका पीछा कर उसे पकड़ा और भूमि पर पटककर उसका वध किया।
- गुफा से सभी गोपबालक मुक्त हो गए।
गोवर्धन लीला (उम्र – 7 वर्ष)
- नंद बाबा ने श्रीकृष्ण की बात मानकर गोवर्धन पूजन किया, इन्द्र पूजन नहीं किया।
- इससे इन्द्र क्रोधित हो गए और उन्होंने गोकुल में मूसलधार वर्षा और आँधी-तूफान भेज दिया।
- तब सात वर्षीय श्रीकृष्ण ने छोटी अंगुली पर सात दिन तक गोवर्धन पर्वत उठाकर सभी गोप-गोपियों और गायों को आश्रय दिया।
- सातवें दिन इन्द्र को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने श्रीकृष्ण से क्षमा माँगी।
महत्व – गोवर्धन लीला हमें यह सिखाती है कि ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रकृति के प्रति सम्मान ही असली धर्म है, न कि अंधी परंपराओं का पालन।
रासलीला का प्रारंभ (उम्र – 8–9 वर्ष)
- शरद पूर्णिमा की रात, जब चंद्रमा अपनी पूर्ण कलाओं से शोभित था, श्रीकृष्ण ने बांसुरी की मधुर ध्वनि बजाई।
- इस ध्वनि को सुनकर वृंदावन की गोपियाँ अपने-अपने घर छोड़कर श्रीकृष्ण के पास आ गईं।
- भगवान ने प्रत्येक गोपी के साथ एक-एक रूप में नृत्य किया—इसे ही रासलीला कहते हैं।
- यह लीला केवल भौतिक प्रेम की नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन की प्रतीक है।
वृंदावन स्थानांतरण का महत्व
गोकुल से वृंदावन का स्थानांतरण केवल भौगोलिक बदलाव नहीं था, बल्कि यह श्रीकृष्ण की जीवन यात्रा में एक नया अध्याय था—यहाँ उन्होंने न केवल गोप-बालकों और गोपियों का हृदय जीता, बल्कि अनेक दैत्यों का वध कर धर्म की रक्षा की।
भागवत पुराण (10.25.18) में कहा गया है—
“गोवर्धनधरो नाथः पालयामास वत्सकान्।सुरेन्द्रं निगृहीत्यान्ते सर्वलोकहिताय च॥”
अर्थात् — “गोवर्धन धारण कर भगवान ने न केवल गोपों और गायों की रक्षा की, बल्कि इन्द्र के अहंकार को भी दूर किया।”
मथुरा गमन और कंस वध (उम्र – 11 वर्ष)
कंस ने जब सुना कि गोकुल में देवकी का आठवाँ पुत्र जीवित है और वही उसका वध करेगा, तब उसने एक योजना बनाई। उसने अपने मंत्री अक्रूर को वृंदावन भेजा और कहा—
गोपियाँ जब यह सुनती हैं तो रो पड़ती हैं। उनके लिए यह असहनीय था कि कृष्ण वृंदावन छोड़कर जाएँ।
गोपियों से भावुक विदाई
यह कहकर कृष्ण और बलराम अक्रूर के साथ मथुरा के लिए प्रस्थान करते हैं।
मथुरा में प्रवेश
जब श्रीकृष्ण और बलराम मथुरा पहुँचे तो नगरवासी उनके रूप और आभा को देखकर चकित रह गए। हर गली, हर घर की स्त्रियाँ बालकृष्ण का दर्शन करने लगीं।
- एक नाई ने उन्हें देखा और तुरंत जाकर कंस को समाचार दिया कि “वह दिव्य बालक मथुरा पहुँच चुका है।”
- कंस ने आदेश दिया कि पहले दिन उन्हें धनु-भंग लीला दिखानी होगी और अगले दिन मल्लयुद्ध।
धनु-भंग लीला
मथुरा में एक विशाल धनुष रखा गया था, जिसे कोई भी उठा नहीं सकता था।
- भगवान ने उस धनुष को सहजता से उठाया और क्षण भर में तोड़ डाला।
- इससे समूचे नगर में यह चर्चा फैल गई कि ये दोनों बालक कोई साधारण नहीं हैं।
कुबलयपीड हाथी का वध
मल्लयुद्ध के मैदान में प्रवेश करने से पहले कंस ने एक विशाल हाथी “कुबलयपीड” को द्वार पर खड़ा किया, ताकि वह कृष्ण-बलराम को कुचल डाले।
- श्रीकृष्ण ने उसकी सूँड़ पकड़कर उसे पटक दिया और मार डाला।
- यह देखकर नगर के लोग हतप्रभ रह गए।
मल्लयुद्ध – चाणूर और मुष्टिक का वध
मैदान में कंस ने अपने दो सबसे शक्तिशाली पहलवान—चाणूर और मुष्टिक—को बुलाया।
- चाणूर ने कृष्ण से युद्ध किया और मुष्टिक ने बलराम से।
- थोड़ी ही देर में दोनों दैत्य धराशायी हो गए।
- इसके बाद कृष्ण ने तोसल और कुष्ठ नामक पहलवानों का भी वध किया।
कंस वध (उम्र – 11 वर्ष)
कंस यह सब देख क्रोधित होकर स्वयं मंच से कूद पड़ा।
- उसने कृष्ण को पकड़ने का प्रयास किया, लेकिन भगवान ने उसके केश पकड़कर उसे मंच से नीचे गिरा दिया।
- फिर वे उसके वक्ष पर चढ़ गए और कुछ ही क्षणों में कंस का अंत कर दिया।
- मथुरा की जेल के दरवाजे खुल गए और देवकी-वसुदेव मुक्त हुए।
भागवत पुराण (10.44.52) में कहा गया है—
“स त्वां नृशंस आचार्यं कृतघ्नं कंसमात्मजम्।अवधीद् धर्मराजोऽयं श्रेयसां पतिरव्ययः॥”
अर्थात् — “श्रीकृष्ण ने कंस जैसे कृतघ्न और नृशंस का वध कर धर्म की पुनः स्थापना की।”
कंस वध का महत्व
यह घटना दर्शाती है कि अधर्म चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंत में धर्म ही विजय पाता है। श्रीकृष्ण का मथुरा आगमन और कंस वध वास्तव में धर्मयुद्ध की शुरुआत थी।
सांदीपनि आश्रम में शिक्षा (उम्र – 12–16 वर्ष)
कंस वध के बाद श्रीकृष्ण और बलराम ने मथुरा में अपने माता-पिता वसुदेव और देवकी के साथ कुछ समय बिताया। फिर वे शिक्षा प्राप्ति के लिए उज्जैन स्थित सांदीपनि मुनि के आश्रम गए।
- दोनों भाइयों ने अल्प समय में ही वेद, उपनिषद, शास्त्र, धनुर्वेद, खगोल, राजनीति और धर्मशास्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया।
- विशेष बात यह रही कि उन्होंने यह सम्पूर्ण शिक्षा केवल 64 दिनों में पूर्ण कर ली, जो सामान्यतः वर्षों में पूरी होती है।
- शिक्षा पूर्ण होने के बाद उन्होंने गुरुदक्षिणा में सांदीपनि मुनि के पुत्र को मृत्युलोक से वापस लाकर दिया। उन्होंने समुद्र के अंदर जाकर पंचजन्य नामक शंख प्राप्त किया और मृत बालक को यमराज से मुक्त कराकर लाए।
महत्व – इससे यह सिद्ध हुआ कि भगवान केवल अपने लिए ही नहीं, बल्कि गुरु और धर्म की मर्यादा निभाने के लिए भी अवतार लेते हैं।
जरासंध का आक्रमण और मथुरा से द्वारका गमन (उम्र – 17–20 वर्ष)
कंस के मारे जाने के बाद उसका ससुर जरासंध बार-बार मथुरा पर आक्रमण करने लगा।
- उसने 17 बार मथुरा पर आक्रमण किया, लेकिन हर बार श्रीकृष्ण और बलराम ने उसका पराभव किया।
- लेकिन मथुरा के नागरिक लगातार युद्धों से परेशान हो गए।
- तब श्रीकृष्ण ने समुद्र तट पर एक नई नगरी बसाने का निश्चय किया, जो शत्रुओं से सुरक्षित हो।
उन्होंने समुद्र देव से भूमि प्राप्त की और द्वारका नगरी की स्थापना की। यह नगर सोने और रत्नों से अलंकृत था, और चारों ओर समुद्र इसकी प्राकृतिक सुरक्षा करता था।
महत्व – द्वारका नगरी केवल कृष्ण की राजधानी नहीं, बल्कि धर्म, संस्कृति और राजनीति का आदर्श केंद्र बन गई।
रुक्मिणी हरण और विवाह (उम्र – 21 वर्ष)
विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी श्रीकृष्ण की परम भक्त थीं। लेकिन उनके भाई रुक्मी ने उनका विवाह शिशुपाल से तय कर दिया।
- विवाह से एक दिन पहले रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को पत्र भेजा—
- “हे माधव! यदि आप मुझे अपनी अर्धांगिनी मानते हैं, तो आकर मेरा हरण कर लीजिए। अन्यथा मैं प्राण त्याग दूँगी।”
- विवाह के दिन जब रुक्मिणी मंदिर में पूजा कर रही थीं, तभी श्रीकृष्ण रथ लेकर पहुँचे और उनका हरण कर लिया।
- रुक्मी ने पीछा किया, परंतु श्रीकृष्ण ने उसे युद्ध में हराकर दंडस्वरूप जीवित छोड़ दिया।
महत्व – रुक्मिणी हरण कथा हमें यह सिखाती है कि सच्चा प्रेम और भक्ति कभी असफल नहीं होती।
अन्य विवाह और पत्नियाँ
श्रीकृष्ण ने केवल रुक्मिणी ही नहीं, बल्कि अनेक राजकुमारियों से विवाह किया।
- भागवत के अनुसार उन्होंने 16,108 पत्नियाँ ग्रहण कीं।
- इनमें 16,100 वे राजकुमारियाँ थीं जिन्हें नरकासुर ने बंदी बना रखा था। श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध कर उन्हें मुक्त कराया और उनके सम्मान की रक्षा के लिए विवाह किया।
- प्रत्येक रानी के लिए भगवान ने द्वारका में अलग-अलग महल बनाए और प्रत्येक में स्वयं निवास कर सभी के साथ समान प्रेम किया।
कुचेल (सुदामा) प्रसंग
इस काल में श्रीकृष्ण ने अपने बाल्यकाल के मित्र सुदामा (कुचेल) से भी भेंट की।
- सुदामा अत्यंत गरीब ब्राह्मण थे। उनकी पत्नी ने उन्हें श्रीकृष्ण के पास जाने के लिए कहा।
- सुदामा ने उनके लिए चिउड़े (पोहे) की पोटली भेंट में ले ली।
- श्रीकृष्ण ने बड़े प्रेम से वह भेंट स्वीकार की और बदले में सुदामा के घर धन-धान्य से परिपूर्ण कर दिया।
महत्व – यह कथा दर्शाती है कि भगवान अपने भक्तों की भक्ति को ही सबसे बड़ा धन मानते हैं।
शिशुपाल वध (उम्र – 25 वर्ष)
राजसूय यज्ञ में जब युधिष्ठिर ने कृष्ण को अग्रपूजा देने का निर्णय किया, तो शिशुपाल क्रोधित हो गया।
- उसने कृष्ण को अपमानित किया और लगातार 100 बार उनका अपशब्द कहा।
- लेकिन भगवान ने क्षमा कर दी, क्योंकि उन्होंने वचन दिया था कि 100 अपराध क्षमा करेंगे।
- 101वें अपराध पर भगवान ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध कर दिया।
इस कालखंड में श्रीकृष्ण ने शिक्षा प्राप्त की, द्वारका नगरी की स्थापना की, धर्म की मर्यादाएँ निभाईं और विवाह द्वारा समाज की परंपराओं को भी प्रतिष्ठित किया। उनका जीवन केवल युद्ध और राजनीति तक सीमित नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और धर्म का संगम था।
भागवत पुराण (10.52.37) में कहा गया है—
“सर्वेषां धर्मपत्नीना रक्षार्थं लोकपावनः।पाणिग्रहं चकारात्मा धर्मस्य परिपालकः॥”
अर्थात् — “सभी धर्मपत्नी की रक्षा और लोक की पवित्रता के लिए स्वयं भगवान ने विवाह कर धर्म का पालन किया।”
महाभारत में श्रीकृष्ण की भूमिका (उम्र – 29 से 89 वर्ष)
कौरव–पांडव संघर्ष का प्रारंभ
द्वारका स्थापना और रुक्मिणी विवाह के बाद श्रीकृष्ण ने धीरे-धीरे संपूर्ण भारत की राजनीति पर प्रभाव डालना शुरू किया।
- हस्तिनापुर में पांडव और कौरवों के बीच संघर्ष लगातार बढ़ रहा था।
- श्रीकृष्ण ने दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की, लेकिन दुर्योधन और शकुनि की कुटिलता के कारण युद्ध अवश्यंभावी था।
- पांडवों ने जब इन्द्रप्रस्थ बसाया, तब कृष्ण उनके साथ खड़े रहे और द्रौपदी स्वयंवर में अर्जुन की विजय में भी सहयोगी बने।
द्रौपदी चीरहरण और श्रीकृष्ण की रक्षा (उम्र – 32 वर्ष)
जब द्यूत क्रीड़ा में पांडव अपना सब कुछ हार गए और द्रौपदी को सभा में लाया गया, तब दुःशासन ने उनका चीरहरण करना चाहा।
- द्रौपदी ने श्रीकृष्ण का स्मरण किया।
- श्रीकृष्ण ने उनकी लाज बचाई और अनंत वस्त्र प्रदान किए।
- इस घटना ने महाभारत युद्ध की नींव रखी, क्योंकि द्रौपदी ने प्रतिज्ञा की कि वह अपने अपमान का प्रतिशोध अवश्य लेगी।
महत्व – यहाँ श्रीकृष्ण ने यह सिद्ध किया कि भक्त की रक्षा के लिए वे कहीं भी, कभी भी प्रकट हो सकते हैं।
शांति दूत के रूप में प्रयास (उम्र – 86 वर्ष)
कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले पांडवों ने श्रीकृष्ण को शांति दूत बनाकर हस्तिनापुर भेजा।
- उन्होंने दुर्योधन से केवल पाँच गाँव माँगे—इन्द्रप्रस्थ, वृकप्रस्थ, मृदप्रस्थ, वाराणाव्रत और कंचनप्रस्थ।
- दुर्योधन ने उत्तर दिया—“सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूँगा।”
- इस प्रकार युद्ध निश्चित हो गया।
महाभारत युद्ध (उम्र – 86–89 वर्ष)
कृष्ण का सारथ्य
युद्ध शुरू होने पर अर्जुन ने कृष्ण से पूछा कि वे किस पक्ष में होंगे।
- कृष्ण ने कहा— “मैं शस्त्र नहीं उठाऊँगा। एक पक्ष मुझे सेना के रूप में ले सकता है और दूसरा पक्ष मुझे बिना शस्त्र के सारथी के रूप में।”
- दुर्योधन ने उनकी सेना चुनी, और अर्जुन ने कृष्ण को अपना सारथी बना लिया।
गीता उपदेश (उम्र – 86 वर्ष)
युद्ध के पहले दिन अर्जुन विषादग्रस्त हो गए। उन्होंने शस्त्र डाल दिए और युद्ध करने से इंकार कर दिया।
- तब श्रीकृष्ण ने उन्हें भगवद्गीता का उपदेश दिया।
- इसमें उन्होंने कर्मयोग, भक्ति योग, ज्ञान योग, धर्म, आत्मा, परमात्मा और मोक्ष का रहस्य बताया।
- उन्होंने कहा— “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” (मनुष्य को केवल कर्म करने का अधिकार है, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।)
भीष्म और द्रोण के प्रसंग
- जब भीष्म अपराजेय सिद्ध हुए, तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से शिखंडी को सामने रखकर भीष्म पर प्रहार करने को कहा।
- द्रोणाचार्य के वध में भी श्रीकृष्ण की रणनीति रही, जब उन्होंने अश्वत्थामा की असत्य मृत्यु का समाचार फैलवाया।
कर्ण वध
कर्ण युद्ध में अर्जुन के लिए बड़ा संकट था।
- जब कर्ण का रथ कीचड़ में धँसा और उसने समय माँगा, तब कृष्ण ने अर्जुन से कहा— “धर्म युद्ध में अवसर की प्रतीक्षा नहीं की जाती, कर्ण द्रौपदी अपमान का दोषी है।”
- इस प्रकार अर्जुन ने कर्ण का वध किया।
युद्ध का अंत
- अंततः 18 दिनों के बाद युद्ध समाप्त हुआ।
- कौरव सेना नष्ट हुई और केवल कुछ योद्धा (जैसे अश्वत्थामा, कृतवर्मा, कृपाचार्य) ही बचे।
- युधिष्ठिर हस्तिनापुर के राजा बने।
युद्धोत्तर भूमिका
युद्ध के बाद श्रीकृष्ण ने धर्म की पुनः स्थापना में सहयोग किया।
- उन्होंने युधिष्ठिर को राजसूय और अश्वमेध यज्ञ में मार्गदर्शन दिया।
- गांधारी के शोक में उन्होंने सहानुभूति जताई और यह भी बताया कि युद्ध के परिणाम कर्म और नियति का फल हैं।
महाभारत काल में श्रीकृष्ण का मुख्य कार्य था—
- धर्म की रक्षा।
- अधर्म का नाश।
- गीता के रूप में शाश्वत ज्ञान का दान।
भगवद्गीता (4.8) में वे स्वयं कहते हैं—
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥”
अर्थ – सज्जनों की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में अवतरित होता हूँ।
द्वारका जीवन, यादव वंश का अंत और श्रीकृष्ण का महाप्रस्थान (उम्र – 90 से 125 वर्ष तक)
द्वारका में शासन और जीवन (उम्र – 90 वर्ष से आगे)
महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद श्रीकृष्ण द्वारका लौट आए।
- युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का राजा बनाकर उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना की।
- द्वारका में वे एक आदर्श शासक के रूप में जीवन व्यतीत करने लगे।
- रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती और अन्य रानियों के साथ उन्होंने परिवार और राज्य दोनों का संतुलन बनाए रखा।
- उनके पुत्र प्रद्युम्न और पौंड्रक जैसे शत्रु राजाओं के बीच भी उन्होंने न्यायपूर्ण नीति अपनाई।
यादवों का अभिमान और श्राप (उम्र – 120 वर्ष)
महाभारत युद्ध के बाद यादव वंश में विलासिता और गर्व बढ़ गया।
- एक बार ऋषियों के सामने साम्ब (श्रीकृष्ण का पुत्र) ने मजाक किया और ऋषियों से पूछा कि उसके गर्भ में लड़का होगा या लड़की।
- ऋषियों ने श्राप दिया— “यह लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा और इसी से यादव वंश का नाश होगा।”
- बाद में लोहे का मूसल समुद्र में फेंक दिया गया, लेकिन उसके टुकड़े समुद्र के तट पर घास बन गए।
- वही घास अंततः यादवों के विनाश का कारण बनी।
यादव वंश का विनाश (उम्र – 125 वर्ष)
समय बीतने पर यादव आपस में कलह करने लगे।
- एक बार प्रभास क्षेत्र में सभी यादव एकत्र हुए।
- मद्यपान और अहंकार के कारण उनमें झगड़ा हुआ।
- समुद्र तट की वही लोहे की घास उनके हथियार बन गई और उन्होंने एक-दूसरे का वध करना शुरू कर दिया।
- बलरामजी ने समुद्र तट पर ध्यान लगाकर अपना देह त्याग किया और शेषनाग के स्वरूप में प्रकट होकर महासागर में विलीन हो गए।
श्रीकृष्ण का महाप्रस्थान (उम्र – 125 वर्ष)
यादवों के विनाश के बाद श्रीकृष्ण ने समझ लिया कि उनका पृथ्वी पर अवतार-कार्य पूर्ण हो चुका है।
- वे जंगल में अकेले विश्राम कर रहे थे।
- तभी जरा नामक शिकारी ने उनके पैर को हिरण समझकर तीर चला दिया।
- वह तीर श्रीकृष्ण के चरण में लगा।
- श्रीकृष्ण मुस्कुराए और जरा को क्षमा कर दिया।
- उन्होंने कहा— “यह सब ईश्वर की योजना है। तुम चिंता मत करो, तुम्हें पाप नहीं लगेगा।”
- तत्पश्चात, श्रीकृष्ण ने योग द्वारा अपने प्राण को ब्रह्म में विलीन कर दिया।
धर्म का संदेश
श्रीकृष्ण का महाप्रस्थान हमें यह सिखाता है कि—
- जीवन का उद्देश्य धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश है।
- चाहे स्वयं भगवान हों, वे भी अपने नियत कार्य को पूर्ण करके शरीर त्यागते हैं।
- उनका संदेश “गीता” के रूप में आज भी मानवता का मार्गदर्शन करता है।
श्रीकृष्ण की आयु और निर्वाण
- श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर लगभग 125 वर्ष व्यतीत किए।
- उनका जीवन “लीलामय” रहा, जिसमें उन्होंने बाल्यकाल से लेकर युवावस्था और वृद्धावस्था तक अनेक शिक्षाप्रद कार्य किए।
- उनके निर्वाण के बाद द्वारका समुद्र में डूब गई।
श्रीकृष्ण का पूरा जीवन एक महागाथा है।
- जन्म कारागार में हुआ, लेकिन उद्देश्य था धर्म की रक्षा।
- बचपन की लीलाएँ भक्तों को भक्ति का मार्ग दिखाती हैं।
- युवावस्था के कर्म और नीति राजनीति व धर्मनीति सिखाते हैं।
- महाभारत युद्ध और गीता उपदेश मानवता को शाश्वत ज्ञान देते हैं।
- अंततः उन्होंने दिखाया कि ईश्वर भी अवतार लेकर अपने कार्य पूर्ण कर विलीन हो जाते हैं।

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