Jainism : जैन विचारधारा का परिचय के इस लेख में हम जानेंगे एक ऐसी विचारधारा को जो आत्मा की शुद्धि, अहिंसा, अपरिग्रह और मोक्ष की ओर मार्गदर्शन करती है। जैन दर्शन भारतीय दर्शन परंपरा का एक स्वतंत्र और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला भाग है, जिसकी उत्पत्ति भगवान ऋषभदेव से मानी जाती है और जिसे अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने सुव्यवस्थित किया। इसमें आत्मा और अजीव के संबंध, सात तत्त्व, कर्म सिद्धांत, और त्रिरत्न (सम्यक दर्शन, ज्ञान, चरित्र) को मोक्ष मार्ग का मूल माना गया है। जैन धर्म की दो प्रमुख शाखाएँ—दिगंबर और श्वेतांबर—अपने-अपने दर्शन, आचार्य परंपरा और ग्रंथों के आधार पर जैन सिद्धांत को आगे बढ़ाती हैं। आज के समय में जैन दर्शन की शिक्षाएँ पर्यावरण संतुलन, नैतिकता और आत्मनियंत्रण जैसे विषयों में अत्यंत प्रासंगिक हैं। यदि आप जैन दर्शन को गहराई से समझना चाहते हैं, तो यह लेख आपके लिए एक उत्कृष्ट प्रारंभ हो सकता है।
परिचय :
भारतीय दर्शन परंपरा में जैन दर्शन एक प्राचीन और स्वतंत्र मत के रूप में स्थापित है। "दर्शन" का अर्थ होता है — सत्य की अनुभूति या आत्मा व ब्रह्मांड के संबंध में यथार्थ ज्ञान। जैन दर्शन न तो वैदिक है और न ही उपनिषदों पर आधारित; यह एक ऐसी पद्धति है जिसने अपने सिद्धांतों को अनुभव, तप और आत्मानुशासन के आधार पर विकसित किया है।
जैन शब्द "जिन" से बना है, जिसका अर्थ है — जिसने अपनी इंद्रियों, राग-द्वेष और विकारों को जीत लिया है। जो व्यक्ति आत्मविजय प्राप्त करता है, उसे "जिन" कहा जाता है, और उनके द्वारा प्रदत्त मार्ग को "जैन धर्म" या "जैन दर्शन" कहा जाता है।
2. जैन दर्शन की उत्पत्ति
महावीर स्वामी ने आत्मा की मुक्ति के लिए कठोर तप, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि सिद्धांतों पर जोर दिया। उन्होंने समाज में व्याप्त कर्मकांडों को त्याग कर ज्ञान, संयम और अहिंसा पर आधारित एक आदर्श मार्ग प्रस्तुत किया।
3. जैन दर्शन की मुख्य शिक्षाएँ
जैन दर्शन अत्यंत वैज्ञानिक, नैतिक और तर्कसम्मत सिद्धांतों पर आधारित है। इसकी शिक्षाएँ आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति पर केंद्रित हैं।
🔸 1. त्रिरत्न (तीन रत्न)
- सम्यक दर्शन – सच्चे धर्म में आस्था
- सम्यक ज्ञान – आत्मा और ब्रह्मांड के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान
- सम्यक चरित्र – शुद्ध आचरण और संयमित जीवन
🔸 2. पंच महाव्रत
- अहिंसा – किसी भी जीव को कष्ट न पहुँचाना
- सत्य – सच्चे वचनों का प्रयोग
- अस्तेय – चोरी न करना
- ब्रह्मचर्य – इंद्रिय संयम
- अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना
🔸 3. कर्म सिद्धांत
🔸 4. अनेकांतवाद
सत्य एक नहीं होता, वह कई दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। जैन दर्शन का यह महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसे स्याद्वाद और नैयायिक विचार के माध्यम से समझाया जाता है।
4. जैन दर्शन की शाखाएँ
जैन धर्म कालांतर में दो प्रमुख शाखाओं में विभक्त हुआ:
🔹 1. दिगंबर (आकाश वस्त्रधारी)
- ये साधु वस्त्र नहीं पहनते
- कठोर तप और संयम का पालन करते हैं
- मान्यता है कि केवल नग्नता से ही मोह का त्याग संभव है
- भगवान महावीर को दिगंबर रूप में मानते हैं
- स्त्रियों की मोक्ष प्राप्ति संभव नहीं मानते
🔹 2. श्वेतांबर (श्वेत वस्त्रधारी)
- साधु-साध्वियाँ सफेद वस्त्र पहनते हैं
- भगवान महावीर को वस्त्रधारी मानते हैं
- स्त्रियों की मोक्ष प्राप्ति स्वीकार करते हैं
- आगम ग्रंथों की रचना श्वेतांबर परंपरा में प्रमुख रूप से हुई है
इन दोनों परंपराओं के भीतर भी उपशाखाएँ हैं जैसे:
- दिगंबर में: बीसपन्थ, तारणपंथ, आदि
- श्वेतांबर में: मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथ
5. जैन आगम और साहित्य
जैन धर्म का विशाल साहित्य “आगम ग्रंथों” के रूप में उपलब्ध है। ये मुख्यतः श्वेतांबर परंपरा में संरक्षित हैं।
🔸 प्रमुख ग्रंथ:
- 12 अंग
- 14 पूर्व (अब लुप्त)
- उपांग, मूलसूत्र, चूलिका सूत्र आदि
- तत्त्वार्थसूत्र (आचार्य उमास्वाति द्वारा रचित) – यह दिगंबर और श्वेतांबर दोनों द्वारा मान्य है।
6. दिगंबर परंपरा के प्रमुख प्रवर्तक
1. आचार्य कुंदकुंद (2वीं शताब्दी)
- ‘समयसार’, ‘नियमसार’, ‘प्रवचनसार’ जैसे गूढ़ ग्रंथों के लेखक
- आत्मा की स्वतंत्रता, योग और मोक्ष का गहन विश्लेषण
2. आचार्य समंतभद्र (5वीं शताब्दी)
- ‘आप्तमीमांसा’ और ‘स्वयंभू स्तोत्र’ जैसे तर्कयुक्त ग्रंथ
- अनेकांतवाद के समर्थक
3. आचार्य जिनसेन और गुणभद्र (8वीं शताब्दी)
- ‘हरिवंश पुराण’ और ‘आदिपुराण’ जैसे ग्रंथ रचने वाले
4. आचार्य विद्यानंद (9वीं शताब्दी)
- तर्क और न्याय के ज्ञाता
- बौद्ध और वैदिक दर्शनों का शास्त्रार्थ किया
7. श्वेतांबर परंपरा के प्रमुख प्रवर्तक
1. आचार्य भद्रबाहु
- अंतिम ज्ञाता 14 पूर्वों के
- मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के गुरु
- दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार
2. आचार्य देवर्धिगणि क्षमाश्रमण
- जैन आगमों का लिपिबद्ध संकलन किया (5वीं शताब्दी ईस्वी)
3. उपाध्याय यशोविजयजी (17वीं शताब्दी)
- दर्शन, तर्कशास्त्र, और नीति पर अनेक ग्रंथ
- हिंदू-जैन संवाद को आत्मीयता से प्रस्तुत किया
4. आचार्य तुलसी (20वीं शताब्दी)
- तेरापंथ के प्रवर्तक
- ‘अणुव्रत आंदोलन’ के संस्थापक
- अहिंसा, नशामुक्ति और संयम को जनमानस तक पहुँचाया
8. जैन दर्शन का प्रभाव और आधुनिक प्रासंगिकता
🔸 भारतीय संविधान और अहिंसा
- महात्मा गांधी ने जैन धर्म की अहिंसा से प्रेरणा ली
- "अपरिग्रह" का सिद्धांत आज के उपभोक्तावाद में मार्गदर्शक है
🔸 पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता
- जैन साधुओं का जीवों के प्रति संवेदनशील आचरण
- पेड़, जल, वायु – सबको जीव मानने की धारणा
🔸 वैज्ञानिक सोच और आत्म-अनुशासन
- कर्मों का सिद्धांत आधुनिक मनोविज्ञान से मेल खाता है
- संयमित आहार, दिनचर्या, और आत्मनिरीक्षण को बढ़ावा
9. निष्कर्ष (निचोड़)
जैन दर्शन केवल धार्मिक मार्ग नहीं, बल्कि एक नैतिक और वैज्ञानिक जीवनशैली का प्रस्ताव है। इसकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी सहस्रों वर्ष पहले थीं।
- इसकी जड़ें ऋषभदेव जैसे प्राचीन तीर्थंकरों से जुड़ी हैं
- इसकी शाखाएँ, शिक्षाएँ और अनुशासन समाज के लिए आदर्श हैं
- इसके आचार्य और आगम भारतीय दर्शन की अमूल्य धरोहर हैं
आज के युग में, जब हिंसा, भोगवाद और अशांति व्याप्त है, जैन दर्शन का "अहिंसा, अपरिग्रह और आत्मज्ञान" का मार्ग ही सच्चे समाधान की ओर ले जा सकता है।
"इसी क्रम में आगे आने वाले लेखों में हम जैन विचारधारा और दर्शन को विस्तार में पढ़ेंगे | यदि यह लेख आपको अच्छा लगा हो तो अपने मित्रों के साथ साझा करें ताकि उन्हें भी जैन दर्शन के बारे में जानकारी मिल सके |"
🔍 Frequently Asked Questions (FAQs)
❓ जैन धर्म और जैन दर्शन में क्या अंतर है?
उत्तर: जैन धर्म एक धार्मिक परंपरा है जबकि जैन दर्शन इस धर्म की दार्शनिक विचारधारा है जिसमें आत्मा, कर्म, मोक्ष और तत्त्वज्ञान की गहन व्याख्या की जाती है।
❓ जैन धर्म में ईश्वर की क्या भूमिका है?
उत्तर: जैन धर्म ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानता। प्रत्येक आत्मा में स्वयं सिद्ध बनने की क्षमता होती है और मोक्ष प्राप्त आत्माएँ पूज्य मानी जाती हैं।
❓ जैन दर्शन आज के समय में कैसे प्रासंगिक है?
उत्तर: अहिंसा, संयम, पर्यावरण-प्रेम, और आत्मनियंत्रण की शिक्षाएँ आज के हिंसक, उपभोक्तावादी युग में अत्यंत प्रासंगिक हैं।

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