चर्चित व्यक्तित्वों का अचर्चित महाप्रयाण

मृत्यु संसार का ऐसा शाश्वत सत्य है, जिसे कोई नकार नहीं सकता। चाहे मनुष्य कितना भी विद्वान, शक्तिशाली, धनवान या बलवान क्यों न हो, अंततः उसे इस जगत से विदा लेना ही पड़ता है। कबीरदास जी ने कहा है – “जब हम पैदा हुए जग हँसा, हम रोए; ऐसी करनी कर चलो कि हम हँसे जग रोए।” यह पंक्तियाँ हमें जीवन का वास्तविक मर्म समझाती हैं।

मानव जीवन क्षणभंगुर है। जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त होना प्रकृति का नियम है। अंतर केवल इतना है कि जन्म के समय व्यक्ति रोता है और संसार आनंदित होता है, जबकि मृत्यु के समय यह स्थिति उलट जाती है। यदि जीवन को सार्थक कार्यों, पुण्य कर्मों और सेवा में लगाया जाए तो मृत्यु के समय व्यक्ति मुस्कुराकर जा सकता है और पीछे लोग उसकी स्मृतियों में अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यही मृत्यु को अविस्मरणीय बनाने का मार्ग है।

किसी का जन्म किन परिस्थितियों में हुआ, यह व्यक्ति के वश में नहीं होता। कोई निर्धन घर में जन्म लेता है तो कोई संपन्न परिवार में, कोई सामान्य परिस्थितियों में आता है तो कोई विशेष में। किंतु मृत्यु के समय की स्मृतियाँ व्यक्ति स्वयं गढ़ सकता है। यदि उसने जीवन भर सच्चाई, ईमानदारी, करुणा और परोपकार का मार्ग अपनाया है तो उसके प्रस्थान को लोग युगों तक याद करते हैं। महापुरुषों और संतों की पुण्यतिथि आज भी श्रद्धापूर्वक मनाई जाती है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन और मृत्यु को समाज के लिए प्रेरणास्रोत बना दिया।

भारत में कई विभूतियाँ हुई, जिन्होंने अपने जीवन को इन आदर्शों से जिया कि उनका पूरा जीवन नमन योग्य था, परन्तु उनके देहवसान की जानकारी कम लोगों को तो आईये जानते हैं भारत की कुछ महान विभूतियों के देहवसान के सदर्भ में | 

श्रीराम महाप्रयाण

भगवान श्रीराम भारतीय संस्कृति के आदर्श पुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूजनीय हैं। उनका संपूर्ण जीवन धर्म, कर्तव्य, करुणा और त्याग की मिसाल प्रस्तुत करता है। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र रूप में अवतार लेकर श्रीराम ने न केवल राजधर्म निभाया, बल्कि आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति और आदर्श राजा का उदाहरण प्रस्तुत किया। वनवास के दौरान उन्होंने कठिन तपस्या, दुःख और संघर्ष सहते हुए भी धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा। रावण का वध कर उन्होंने अधर्म और अन्याय पर धर्म और सत्य की विजय का संदेश दिया।

अयोध्या लौटकर श्रीराम ने राजतिलक के बाद प्रजा के कल्याण के लिए ‘रामराज्य’ स्थापित किया, जहाँ सत्य, न्याय और सुख-शांति का राज्य था। उनके शासन को आज भी आदर्श शासन माना जाता है। जीवन के अंतिम समय तक उन्होंने केवल समाज और धर्म की रक्षा को ही अपना कर्तव्य समझा।

महाप्रयाण के प्रसंग में कहा जाता है कि जब श्रीराम ने धरती पर अपने अवतार का कार्य पूर्ण कर लिया, तब सरयू नदी के तट पर जाकर उन्होंने जल में प्रवेश किया और अपना देह त्याग कर पुनः वैकुण्ठ धाम लौट गए। यह घटना उनके महाप्रयाण के रूप में वर्णित है। उनके साथ ही उनके अनुज भ्राता भी जल समाधि में लीन हो गए। इस प्रकार श्रीराम ने दिखाया कि जन्म और मृत्यु केवल देह का परिवर्तन है, आत्मा अमर है।

श्रीराम का महाप्रयाण केवल एक दिव्य घटना नहीं, बल्कि यह संदेश है कि जीवन का उद्देश्य धर्मपालन और कर्तव्यनिष्ठा में निहित है। श्रीराम का जीवन और उनका महाप्रयाण युगों-युगों तक मानवता को प्रेरित करता रहेगा।

श्रीकृष्ण का महाप्रयाण

भगवान श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के ऐसे अद्वितीय नायक हैं जिनका जीवन जन्म से लेकर महाप्रयाण तक दिव्य लीलाओं से परिपूर्ण रहा। द्वापर युग में कारागार में जन्म लेकर उन्होंने अत्याचार और अधर्म के नाश का संकल्प लिया। बचपन में गोपियों और गोप-बालकों के साथ की गई बाल लीलाएँ, कालिया नाग का दमन, गोवर्धन धारण और माखन चुराने की मधुर घटनाएँ आज भी भक्तों के हृदय में अमिट रूप से अंकित हैं।

युवावस्था में उन्होंने कंस का वध कर अत्याचार का अंत किया और धर्म की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। महाभारत के युद्ध में अर्जुन को दिया गया उपदेश – श्रीमद्भगवद्गीता – आज भी मानवता के लिए जीवन मार्गदर्शक है। “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” का सिद्धांत लोगों को कर्मयोग की ओर प्रेरित करता है। श्रीकृष्ण ने केवल धर्म की रक्षा ही नहीं की, बल्कि जीवन के प्रत्येक पक्ष को जीकर दिखाया।

महाप्रयाण के समय भी उनका जीवन आदर्शपूर्ण रहा। द्वारका में यादव वंश के आपसी संघर्ष के बाद जब सबका अंत हो गया तो श्रीकृष्ण ने भी देह त्यागने का निश्चय किया। शेष समय उन्होंने वन में ध्यान और समाधि में व्यतीत किया। अंततः एक शिकारी जरा ने अनजाने में उनके चरणों में तीर मारा और यही उनके महाप्रयाण का कारण बना।

श्रीकृष्ण ने दिखाया कि अवतार होने पर भी देह का अंत निश्चित है। परंतु उनके जीवन और उपदेशों ने उन्हें अमर बना दिया। आज भी जब धर्म, प्रेम, करुणा और नीति की चर्चा होती है तो श्रीकृष्ण का स्मरण अवश्य होता है। उनका महाप्रयाण केवल एक अंत नहीं, बल्कि युगों तक धर्म और सत्य की ज्योति प्रज्वलित करने वाली शाश्वत प्रेरणा है।

महात्मा बुद्ध का महाप्रयाण

महात्मा बुद्ध का जीवन सत्य, करुणा और अहिंसा की प्रतिमूर्ति था। उन्होंने संसार को दुःख और उसके निवारण का मार्ग दिखाया। बौद्ध परंपरा के अनुसार महात्मा बुद्ध का महाप्रयाण कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में 80 वर्ष की आयु में हुआ। इसे महापरिनिर्वाण कहा जाता है, जिसका अर्थ है – जन्म-मरण के चक्र से पूर्ण मुक्ति।

बुद्ध ने जीवन भर लोगों को मध्यम मार्ग, सम्यक दृष्टि, सम्यक कर्म और करुणा का उपदेश दिया। उनका मानना था कि शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मज्ञान और धर्म अमर हैं। जब उन्होंने अपनी अंतिम घड़ियाँ देखीं तो शांतचित्त होकर शिष्यों को अंतिम उपदेश दिया – “अप्प दीपो भव” अर्थात् “स्वयं अपने दीपक बनो।” यह वाणी आज भी हर साधक को आत्मनिर्भरता और आत्मज्योति का संदेश देती है।

कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध ने कुशीनगर के साल वृक्षों के नीचे विश्राम करते हुए महाप्रयाण किया। उस समय हजारों भिक्षु और अनुयायी उनके चारों ओर एकत्र थे। वे निरंतर अपने गुरु के उपदेश सुन रहे थे और आँसुओं में भी शांति का अनुभव कर रहे थे।

बुद्ध का महाप्रयाण केवल एक महान आत्मा का देहत्याग नहीं था, बल्कि एक युगांतकारी घटना थी। उनके उपदेश आज भी मानवता के लिए मार्गदर्शक हैं। करुणा, प्रेम, अहिंसा और समभाव का उनका संदेश युगों-युगों तक प्रासंगिक रहेगा।

इस प्रकार महात्मा बुद्ध का महाप्रयाण यह सिखाता है कि मृत्यु अंत नहीं, बल्कि परम सत्य की प्राप्ति है। उनका जीवन और मृत्यु दोनों ही मानव समाज के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।

महावीर स्वामी का महाप्रयाण

भगवान महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे, जिन्होंने अपने जीवन से सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और संयम का अद्वितीय संदेश दिया। उनका संपूर्ण जीवन त्याग और तपस्या का प्रतीक रहा। जब उन्होंने दीक्षा ग्रहण की तो चौदह वर्ष तक कठिन साधना के पश्चात केवलज्ञान प्राप्त किया और फिर लगभग तीस वर्षों तक धर्म प्रचार कर अनगिनत आत्माओं का मार्गदर्शन किया।

महावीर स्वामी का महाप्रयाण ईसा पूर्व 527 में बिहार के पावापुरी में हुआ। जैन परंपरा के अनुसार उस समय कार्तिक मास की अमावस्या की रात्रि थी। उनके निर्वाण के क्षण में सम्पूर्ण वातावरण अलौकिक और शांतिमय था। महावीर स्वामी ने अंतिम उपदेश देते हुए संसार को यह समझाया कि आत्मा शाश्वत है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति तभी संभव है जब व्यक्ति मोह-माया, राग-द्वेष और आसक्ति से मुक्त होकर आत्मा के सत्य को जाने।

उनकी मृत्यु मात्र शारीरिक देह का अंत थी, किंतु वास्तव में वह आत्मा की परम मुक्ति का उत्सव था। जैन समाज इस अवसर को “निर्वाण महोत्सव” के रूप में मनाता है। आज भी दीपावली का पर्व महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस की स्मृति में ही मनाया जाता है। जब वे पावापुरी में समाधिस्थ हुए तो चारों ओर दीपों की जगमगाहट से रात आलोकित हो उठी। इसीलिए दीपावली का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व महावीर स्वामी से जुड़ा हुआ है।

भगवान महावीर का महाप्रयाण मानवता के लिए यह संदेश लेकर आया कि जीवन का अंतिम उद्देश्य केवल भौतिक सुख नहीं, बल्कि आत्मिक शांति और मोक्ष है। उनके निर्वाण को स्मरण करना हमें यह प्रेरणा देता है कि हम भी अपने जीवन को सच्चाई, करुणा और संयम के मार्ग पर चलाकर सार्थक बना सकें।

राजा विक्रमादित्य का स्वर्गवास

राजा विक्रमादित्य भारतीय इतिहास और लोककथाओं के महान सम्राट माने जाते हैं। उन्हें न्यायप्रियता, वीरता, बुद्धिमत्ता और धर्मपरायणता के लिए जाना जाता था। उनके दरबार में पंचतंत्र और विविध कहानियों के अनुसार विद्वानों, कवियों और न्यायप्रिय व्यक्तियों का स्वागत होता था।

विक्रमादित्य का स्वर्गवास उनके धर्म और न्यायप्रियता के कारण अत्यंत आदरणीय माना जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों और युद्धों का सामना किया, परंतु कभी धर्म और न्याय का मार्ग नहीं छोड़ा। अपने अंतिम समय में उन्होंने राज्य की जिम्मेदारी योग्य उत्तराधिकारी को सौंप दी और अपने जीवन का अंत ध्यान और भक्ति में स्थित होकर किया।

उनके स्वर्गवास का स्थान और समय ऐतिहासिक रूप से निश्चित नहीं है, परंतु लोककथाओं और प्राचीन ग्रंथों में यह बताया गया है कि उन्होंने अपने जीवन को पुण्यपूर्ण कर्मों में व्यतीत किया। मृत्यु के समय वे पूर्ण समाधि में लीन हुए, जिससे उनके व्यक्तित्व की महिमा और उनके जीवन का आदर्श जनता के लिए अमर बन गया।

राजा विक्रमादित्य का स्वर्गवास इस बात का संदेश देता है कि जीवन में न्याय, धर्म और भक्ति का मार्ग अपनाने वाला व्यक्ति मृत्यु के बाद भी सदैव स्मरणीय और प्रेरणादायक रहता है। उनकी कहानियाँ आज भी न्याय और साहस का प्रतीक मानी जाती हैं।

रामानंदाचार्य का स्वर्गवास

रामानंदाचार्य भारतीय भक्ति आन्दोलन के महान संत एवं धर्मगुरु थे। वे भगवान राम के भक्ति मार्ग के प्रचारक थे और समाज में समानता, धर्म और आध्यात्मिक जीवन का संदेश फैलाने के लिए प्रसिद्ध हुए। रामानंदाचार्य ने अपने जीवन में भक्ति, ज्ञान और समाज सेवा को प्राथमिकता दी। उन्होंने जाति, वर्ग और सामाजिक भेदभाव को त्यागते हुए सभी को भगवान राम की भक्ति का मार्ग दिखाया।

उनका स्वर्गवास गहन श्रद्धा और आध्यात्मिक वातावरण में हुआ। कहा जाता है कि रामानंदाचार्य ने अपने अंतिम समय तक भक्ति और ध्यान में लीन रहकर अपने शरीर का त्याग किया। उनके शिष्य और अनुयायी उनके पास उपस्थित थे और उन्होंने अंतिम क्षणों में रामनाम का जप करते हुए गुरु का आदरपूर्वक समर्पण किया। उनका स्वर्गवास केवल शारीरिक देह का अंत था, परंतु उनके उपदेश, भक्ति और ज्ञान आज भी लोगों के लिए मार्गदर्शक बने हुए हैं।

रामानंदाचार्य का जीवन और उनका स्वर्गवास यह सिखाता है कि मृत्यु केवल शारीरिक अंत है, लेकिन सच्चे ज्ञान और भक्ति का प्रभाव अमर रहता है। उनके द्वारा स्थापित भक्ति मार्ग ने अनेक संतों और अनुयायियों को आध्यात्मिक चेतना की ओर प्रेरित किया। ऐसे संत का स्वर्गवास समाज के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बन जाता है।

आदि शंकराचार्य का स्वर्गवास

आदि शंकराचार्य, जिन्हें भारत के अद्वितीय दार्शनिक और अद्वैत वेदांत के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है, का जीवन ज्ञान, तपस्या और सेवा से भरा हुआ था। उन्होंने मात्र आठ वर्ष की आयु में वेदों का अध्ययन शुरू किया और जल्दी ही अद्वैत वेदांत की गहन समझ प्राप्त कर ली। उनके जीवन का उद्देश्य भारतीय समाज में धर्म, शास्त्र और अध्यात्म की वास्तविकता को स्थापित करना था।

आदि शंकराचार्य ने पूरे भारत में भ्रमण करते हुए मठों की स्थापना की, संप्रदायिक भेदभाव को मिटाया और वेदांत के सिद्धांतों को जन-जन तक पहुँचाया। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की, जिनमें भजगोविंदम्, अत्रिपदीशरीरामायणटीका, सौंदर्यलहरी आदि प्रमुख हैं। उनके अनुयायियों के अनुसार, शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में कैलाश पर्वत के निकट समाधि ली। कहा जाता है कि उनका स्वर्गवास शारीरिक नहीं बल्कि समाधि में हुआ, अर्थात् उन्होंने अपने शरीर को त्यागकर परमात्मा में विलीन हो गए।

उनकी यह मृत्यु उनके जीवन की तरह ही दिव्य और प्रेरणादायक रही। आज भी उनके ग्रंथ, उपदेश और मठ उनके अनुयायियों के लिए मार्गदर्शक हैं। आदि शंकराचार्य का स्वर्गवास इस बात का प्रतीक है कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य ज्ञान, सेवा और आत्म-साक्षात्कार होना चाहिए। उनकी शिक्षाएँ आज भी हमें जीवन को सार्थक बनाने का मार्ग दिखाती हैं।


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