सजधज कर खड़ा विवाह मंडप उत्सव के रंगों में सराबोर था। दूल्हा केशव का राजसी रथ द्वार पर रुका और अपने रथ से उतरकर दूल्हा केशव मंच की ओर बढ़ा तो दुल्हन सुरेखा के परिजनों ने फूल बरसाकर बारातियों का स्वागत किया | मंच पर लगे सिंहासन पर बैठा केशव किसी राजा से कम नहीं लग रहा है | मंच पर केशव के दोस्तों, भाई-बान्धवों की हंसी ठिठोली चल रही थी | कुछ ही देर में शादी के लाल जोड़ी में दुल्हन सुरेखा सर झुकाकर दबे क़दमों से चलते हुए वरमाला के लिए मंच पर पहुंची और सभी रस्में धूमधाम से निभने लगीं। पर जैसे ही वरमाला की बारी आई, सुरेखा का हाथ बढ़ाना ही था कि दोस्तों ने केशव को कंधों पर उठा लिया। सुरेखा का हाथ लटक कर रह गया। एक बार फिर कोशिश की, पर हँसी-ठिठोली के शोर में उसकी लज्जा दब सी गई।
"अरे भाभी जी! इतनी आसानी से तो हार नहीं मानते," कुछ युवकों की शरारती आवाज़ें गूँजीं।
सामने से आती हूटिंग और तालियों की गड़गड़ाहट ने सुरेखा के पिता, बृजपाल के हृदय को झकझोर दिया। उनका मन अपनी बेटी की बेबसी में डूब गया। बेटी के हाथों के साथ-साथ उनके अपने हाथ भी बेसुध याचना में ऊपर उठ रहे थे।
आँखों में स्नेह और वेदना का अथाह सागर लिए वह बोले, "बेटा, बस करो... इतना ही बहुत है। प्लीज... मान जाओ।" उनकी आवाज़ में एक पिता की करुणा थी, जो अपनी बेटी की लाज बचाना चाहता था।
"अंकल, ये मौका तो बार-बार नहीं आता!" युवाओं की बेपरवाह हँसी ने उनकी याचना को अनसुना कर दिया।
पिता की आँखों में छिपे आँसू और चेहरे पर व्याप्त मायूसी देख सुरेखा सहन नहीं कर पाई। उसके भीतर एक तीखी हूक-सी उठी और आँसुओं की एक लहर ने उसकी आँखें भर दीं। वह वरमाला लिए, सखियों की कतार से खिसक कर सबसे पीछे चली गई और मुँह फेरकर खड़ी हो गई।
उसे अपने फैसले पर गहरा दुख हो रहा था—क्या उसने ऐसे व्यक्ति को चुना था जो सम्मान देने का मर्म ही नहीं जानता?
सुरेखा के इस कदम ने जैसे पल का संगीत ही बदल दिया। मंच पर सन्नाटा छा गया वैसे तो सुरेखा मुँह फेरे खड़ी थी परन्तु उसकी सिसकियाँ मानों मंच पर गूंज रही थी | केशव और उसके मित्र भी स्तब्ध थे उन्हें नहीं पता था उनका यह मजाक सुरेखा के मर्यादित हृदय को इतनी वेदना दे जाएगा। सबके चेहरे पर छाई हँसी मानो जमींदोज हो गई।
सुरेखा के माता-पिता व्यथित होकर उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे, पर सुरेखा को इतना आघात लगा था कि वो लौटने की हिम्मत ही नहीं कर पा रही थी | केशव के पिता ने जब यह दृश्य देखा तो उन्हें बारातियों की गलती का अहसास हुआ वह दौड़कर मंच पर चढ़े और हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए सुरेखा से बोले - "बेटा.... मेरे केशव और उसके दोस्तों की भूल की मैं क्षमा मांगता हूँ | शायद हमारे ही संस्कारों में कमी रही जिससे इन्होने वरमाला जैसे पवित्र संस्कार का मजाक बनाया।"
सुरेखा की दीपक-जैसी आँखों से बहते आँसुओं ने केशव के मन को एक अजीब सी झंझोर दिया। उसकी चेतना में एक नई लहर दौड़ गई। उसके मन में अफरातफरी मच गई—"अगर सुरेखा ने शादी से इनकार कर दिया, तो माँ से किए वादे का क्या होगा? समाज क्या कहेगा? परिवार का सिर कैसे उठेगा?"
इस उधेड़बुन के गहरे सागर में डूबता केशव अचानक ही एक निर्णय पर पहुँचा। वह सबकुछ भूलकर सुरेखा के सामने घुटनों के बल बैठ गया और मन की गहराइयों से निकले शब्दों में बोला, "सुरेखा, आज के बाद जीवन में कोई ऐसा कदम नहीं उठाऊंगा जिससे तुम्हारे सम्मान को चोट पहुँचे। मुझे माफ कर दो।" केशव के मित्रों ने भी सुरेखा और उसके परिवार से माफी मांगी |
यह देख सुरेखा के माता-पिता के हृदय का सारा रोष जाता रहा। उन्होंने केशव को गले लगा लिया। और फिर, तालियों की गड़गड़ाहट ने पूरे मंडप में एक नए, सच्चे स्नेह और सम्मान का उत्सव शुरू कर दिया।

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