Maharishi Ved Vyas : परिचय 

    भारतीय दर्शन में ‘वेदव्यास’ नाम नहीं एक उपाधि है| कहा जाता है अलग-अलग युगों के कालखण्डों में विभिन्न वेदव्यास प्रकट होते हैं जो वेदों-उपनिषदों का संशोधन- संवर्धन करते हैं। अभी तक 28 बार युगचक्र घूम चुका है। उल्लेख है पहले कालखण्ड के द्वापर युग में ‘वेदव्यास’ ब्रह्माजी थे। इसी क्रम में प्रजापति, शुक्राचार्य, ब्रहस्पति, सूर्य, यम, इन्द्र, कृष्ण द्वैपायन आदि वेदव्यास हुए हैं।

Maharishi Ved Vyas


नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्रः।

येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।।
अर्थात् - जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है।
 
    भारतीय पौराणिक दर्शनों में अनेकानेक दिव्य-चरित्रों का उल्लेख है, जिन्होंने ना केवल भारतीय आध्यात्म को सोपान दिये अपितु अपनी योग्यताओं से भारत को विश्वगुरु पद पर सुशोभित किया। ऐसे ही अद्वितीय व्यक्तित्व का उल्लेख हमारे दर्शनशास्त्रों व ग्रंथों में मिलता है, जिन्हे विश्व भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान को लिपिबद्ध करके संकलित, संवर्धित करने की भावना का जनक व गुरु-शिष्य परम्परा का प्रणेता माना जाता है, जिनका नाम है - महर्षि वेदव्यासजी। महर्षि वेदव्यास का जन्म लगभग 3000 ई.पूर्व हुआ था। वेदव्यास जी ने न केवल महाभारत, अट्ठारह पुराण, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्यों की रचना की।
 
    कृष्ण द्वैपायन ‘वेदव्यास’ सत्यवती एवं ऋषि पराशर की संतान थे। इनकी जन्म की कथा अति चमत्कारयुक्त है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में राजा सुधन्वा के अंश से एक मछली ने गर्भधारण कर लिया एवं इसी मछली के गर्भ से एक कन्या मछुवारे को मिली, कन्या के शरीर से सदैव मछली की दुर्गन्ध आती रहती थी जिससे उस कन्या का नाम ‘मत्यगंधा’ पड़ा। यह कन्या बड़ी होकर नौका चलाने लगी। एक समय सिद्ध ऋषि पराशर को मत्यगंधा की नौका में बैठकर नदी पार करनी पड़ी। देवयोग और विधि के विधान से ऋषि पराशर मत्यगंधा पर आसक्त हो गए एवं उन्होंने मत्यगंधा से मिलन की इच्छा व्यक्त की। मत्यगंधा ने ऋषि का आदर करते हुए स्वीकृति प्रदान कर दी।

    विधि के विधान से प्रेरित ऋषि पराशर ने मत्यगंधा को वरदान दिया कि इस मिलन के बाद भी उसका कौमार्य भंग नहीं होगा, उसके शरीर से आने वाली मछली की गंध सदैव के लिए समाप्त होगी एवं उसके स्थान पर पुष्पगंध आया करेगी। यह मिलन कोई जीव नहीं देख पाएगा तथा इस मिलन से एक दिव्य तथा अतिज्ञानी बालक का जन्म होगा। ऋषि ने अपने योगबल से चारो ओर कोहरा कर दिया एवं मत्यगंधा के शरीर से मछली की गंध हटने के कारण कालांतर में उसका नाम सत्यवती पड़ा। इनके मिलन से समय आने पर एक पुत्र हुआ, जो जन्म से ही काले वर्ण (कृष्ण) का था, जिससे उसका नाम ‘कृष्ण’ रखा गया। यह बालक जन्म लेते ही चमत्कारिक रुप से बढ़ा हो गया और अपनी माता से आज्ञा लेकर तपस्या करने द्वैपायन द्वीप चले गए, जिस कारण उन्हें ‘कृष्ण द्वैपायन’ के नाम से भी जाना जाने लगा। ‘कृष्ण द्वैपायन’ ने माता सत्यवती को वचन दिया था कि जब भी वह स्मरण करेंगी मैं आपके सम्मुख उपस्थित हो जाऊंगा।
    
    कालांतर में सत्यवती का विवाह कुरुवंश के राजा शांतनु से हुआ। ऋषि पराशर और मत्यगंधा की ही भांति एक आलौकिक विधान की पे्ररणा से राजा शांतनु एवं गंगा के मिलन से देवव्रत (भीष्म) का जन्म हो चुका था। अर्थात वेदव्यासजी व देवव्रत भीष्म दोनों सौतेले भाई थे। राजा शांतनु व सत्यवती की संतान चित्रांगत एवं विचित्रवीर्य की मृत्यु के पश्चात् सत्यवती के आग्रह पर कृष्ण द्वैपायन ने ‘नियोग दृष्टि’ के माध्यम से अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र एवं अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु को उत्पन्न किया।

    भारतीय दर्शन के अनुसार कृष्ण द्वैपायन त्रिकालदर्शी (भूत, भविष्य व वर्तमान काल देख सकते) थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से जान लिया कि कलयुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य जाति नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जाएगी। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ से बाहर हो जायेगा। इसीलिये उन्होने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। उन्होंने वेद को 4 भागों में विभक्त कर उनके नाम रखे - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही वे ‘वेदव्यास’ के नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य ‘पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि’ को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा निरस होने के कारण वेदव्यासजी ने पाँचवे वेद के रूप में 18 पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है। पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य ‘रोमहर्षण’ को पढ़ाया। व्यासजी के शिष्यों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ और उपशाखाएँ बना दीं।

    व्यासजी की सर्वोत्तम कृति ‘महाभारत महाकाव्य’ मानी जाती है। महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जनसाधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर गणेशजी इस महाकाव्य को लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में नहीं रुकेंगे। 
    व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठिनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेशजी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यासजी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यासजी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत 3 वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी। वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्म, विभिन्न ऋषियों, सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं आदि के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का ‘आद्यभारत’ ग्रंथ बनाया। तदन्तर अन्य उपाख्यानों को छोड़कर केवल भारतवंशीयों को केन्द्रित करते हुए चैबीस हजार श्लोकों की ‘भारत संहिता’ बनायी। ऐसा वर्णन भी मिलता है कि इसके उपरांत व्यासजी ने साठ लाख श्लोकों की एक और संहिता की रचना की, जिसके तीस लाख श्लोकों देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चैदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समाद्धृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का ‘आद्यभारत’ प्रतिष्ठित हुआ।

    महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम अपने पुत्र बाल संन्यासी शुकदेवजी को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया उसके उपरांत अन्य शिष्यों वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित-देवल आदि को इसका अध्ययन कराया। शुकदेव जी ने गन्धर्वों, यक्षों और राक्षसों को इसका अध्ययन कराया। देवर्षि नारद ने देवताओं को, असित-देवल ने पितरों को और वैशम्पायन जी ने मनुष्यों को इसका प्रवचन दिया। वैशम्पायन जी द्वारा महाभारत काव्य जनमेजय के यज्ञ समारोह में सूत सहित कई ऋषि-मुनियों को सुनाया गया था। ऐसा प्रमाण है कि वेदव्यासजी ने महाभारत की रचना जिस स्थान पर की थी वह वर्तमान में नेपाल के तानहू जिले में दमौली नामक स्थान था। इस स्थान पर आज भी वह गुफा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ महाभारत की रचना हुई।

    हस्तिनापुर या कुरुवंश को जब भी आवश्यकता हुई तब वेदव्यासजी ने अपनी माता सत्यवती को दिये वचन की पालना करते हुए वहां आकर समाधान किया। श्रीकृष्ण की ही भांति वेदव्यासजी का व्यक्तित्व भी चमत्कारों व रोचकता से भरा हुआ है। धृतराष्ट के महाभारत युद्ध को देखने के निवेदन पर वेदव्यासजी ने संजय को द्विव्य-दृष्टि दी। महाभारत के 15वें अध्याय ‘आश्रमवासिक पर्व’ में उल्लेख है कि धृतराष्ट, गांधारी और कुन्ती आदि वेदव्यासजी के पास आए व युद्ध में मारे गए सभी योद्धाओं से मिलने की इच्छा जाहिर की। वेदव्यासजी ने अपने योगबल से सभी मारे गए योद्वाओं से उनका साक्षात्कार करवाया।

    घाटा और कान्हा दीपायना नामक दो बौद्ध जातक कथाओं में भी वेदव्यासजी का जिक्र है। ‘कान्हा दीपायना’ में तो ‘बोधिसत्व’ (दया, करुणा, अहिंसा व ज्ञान से जीव जगत के कल्याण को प्रेरित बुद्धत्व को प्राप्त अवतारी पुरुष) कहा गया है। ‘घाटा’ में उन्हें महानग्रंथ का लेखक बताया गया है। वेदव्यासजी के बारे में अंकित है कि उनका जन्म त्रेतायुग के अंत में हुआ एवं वह पुरे द्वापर युग तक प्रत्यक्ष उपस्थित रहे। कलयुग के आने से पहले वह चले गये। वेदव्यासजी की मृत्यु या देवलोकगमन के बारे में कोई प्रणाम नहीं मिले है। बल्कि इन्हें ‘सप्त चिरंजीवियों’ में इनका उल्लेख है।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः।।
अर्थात- अश्वत्थामा, बलि, वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम ये सात महामानव चिरंजीवी हैं।
    
    आषाढ़ मास की पूर्णिमा को महर्षि वेदव्यास जी की जन्मजयंती  सनातनी समाज व्यासपूर्णिमा के रूप में मनाता है, इस पर्व को गुरुपूर्णिमा के नाम से जाना जाता है और इस दिन भारत का प्रत्येक शिष्य अपने गुरु के प्रति अपनी भावांजलि प्रस्तुत करता है|  महर्षि वेदव्यास जैसे दिव्य संतों के कारण गुरु-शिष्य परम्परा भारतभूमि की पहचान बनी हुई है | 

    भारतीय साहित्य एवं आध्यात्म को उपकृत करने वाले महान ऋषि, गुरुओं के गुरु महर्षि वेदव्यास कृष्ण द्वैपायन के जन्म-जयन्ति पर्व गुरु पूर्णिमा पर हम सभी शिष्यगण वेदव्यासजी और अपने-अपने गुरुदेव को बारम्बार प्रणाम करते हैं। गुरुपूर्णिमा महापर्व की हार्दिक शुभकामनाएं। 

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